Wednesday, October 29, 2008

मुक्तक 2

परिचित हैं नए और पुराने कितने आते हैं मगर मिलने-मिलाने कितने घर-बार के, बीमारी के, लाचारी के मित्रो, तुम्हें आते हैं बहाने कितने

काग़ज़ के कई चाँद उजाले हमने रस्ते कई जीने के निकाले हमने साकार ना हो पाए तो क्या है, फिर भी जब रात हुई स्वप्न तो पाले हमने

काँटों पे गुलाबों की छड़ी रख देना दुख-दर्द की झोली में खुशी रख देना संसार को आँसू नहीं भाते प्यारे रोना हो तो होठों पे हँसी रख देना

तुमने भी तो इस दर्द को भोगा होगा संपर्क अगर मित्र से टूटा होगा बेजान जो हो फ़ोन तो बढ़ जाता है ये दुख कि उधर वो भी अकेला होगा

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल

Friday, October 3, 2008

सभी को रौशनी दे

इसे रौशनी दे उसे रौशनी दे
सभी को उजालों भरी जिंदगी दे।
सिसकते हुए होठ पथरा गए हैं,
इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे।
मेरे रहते न प्यासा न रह जाए कोई,
मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे।
मझे मेरे मालिक नहीं चाहिए कुछ,
ज़मीं को मुहब्बत भरा आदमी दे।
आज आदमी को चाहिए प्रेम, अपनापन। आतंकवाद ने आदमी को भयभीत कर दिया है। घर से निकलता है तो उसे घर पहुँचने men भी aashnka होती है। कब क्या हो जाए उसे पता ही नहीं है।

क्या इन darindon से समाज मुक्त हो सकता है? prayas कीजिये।
giriraj sharan agrawal

Thursday, October 2, 2008

aasha

vo ham hain jo andhere men ujala dhundh lete hain
diye ki tarha jalte hain sabera dhundh lete hain.
Giriraj Sharan Agrawal

Wednesday, October 1, 2008

धन्यवाद्

गौरव चौबे आपको धन्यवाद । आपने मेरा ब्लॉग बनाया