Wednesday, October 29, 2008

मुक्तक 2

परिचित हैं नए और पुराने कितने आते हैं मगर मिलने-मिलाने कितने घर-बार के, बीमारी के, लाचारी के मित्रो, तुम्हें आते हैं बहाने कितने

काग़ज़ के कई चाँद उजाले हमने रस्ते कई जीने के निकाले हमने साकार ना हो पाए तो क्या है, फिर भी जब रात हुई स्वप्न तो पाले हमने

काँटों पे गुलाबों की छड़ी रख देना दुख-दर्द की झोली में खुशी रख देना संसार को आँसू नहीं भाते प्यारे रोना हो तो होठों पे हँसी रख देना

तुमने भी तो इस दर्द को भोगा होगा संपर्क अगर मित्र से टूटा होगा बेजान जो हो फ़ोन तो बढ़ जाता है ये दुख कि उधर वो भी अकेला होगा

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल

1 comment:

Bahadur Patel said...

achchha hai.aur likhen.word verification hatayen.